शनिवार, सितंबर 06, 2014

ये पृष्ठभूमि हैं, इस रण की,

आओ आचार्य यहां बैठो,
कुछ पल बिताओ मेरे पास,
  मैं आहत पड़ा हूं रण भूमि में,
चंद क्षण ही हैं तुम्हारे पास,
मेरी शपत, पक्षपात तुम्हारा,
ये पृष्ठभूमि हैं, इस रण की,

तुमने तेज अर्जुन में देखा,
उस तेज को खूब निखारा तुमने,
दुर्योधन में अबगुण असंख्य देखे,
न दूर करने का तुमने प्रयत्न किया,
न बनाया तुमने उसे सुयोधन,
ये पृष्ठभूमि हैं, इस रण की,

सौ कौरव, पांच पांडव,
शिष्य थे केवल तुम्हारे,
हस्तिनापुर का सुनहरा कल हो,
भेजे थे तुम्हारे पास ये सारे,
लक्ष्य था तुम्हारा केवल द्रुपद ,
ये पृष्ठभूमि हैं, इस रण की,

अर्जुन को उचित थी  शस्त्र  शिक्षा,
दुर्योधन को देते शास्त्र ज्ञान,
बाधक शकुनि को दंड दिलाते,
समझते सब को एक समान।
तुम्हारी प्रतिज्ञा, तुम्हारा स्वार्थ,
ये पृष्ठभूमि हैं, इस रण की,

ये कैसी शिक्षा, ये  कैसा ज्ञान,
भाई  भाई के ले रहा है प्राण,
न धर्म,  आचरण, मर्यादाएं,
न रह गयी अब   भावनाएं,
जो देखा, हम केवल  मौन रहे,
ये पृष्ठभूमि हैं, इस रण की,

12 टिप्‍पणियां:

  1. गहरा दर्शन समेटे लाजवाब रचना है ...

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  2. सर्वथा भिन्न दृष्टिकोण ....सुंदर है जी बहुत सुंदर है

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  3. बेनामी1:36 am

    बेहतरीन

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  4. सारगर्भित रचना..

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  5. कुछ प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते....कितने ही युग बीत जाते हैं !!!

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