शनिवार, नवंबर 29, 2014

मौत...

मैंने देखा है
 साक्षात  मौत को
मेरे साथ वर्षों तक
रही भी है   वो
पर पहचाना नहीं
मैंने उसको।

मन भावक होता है
सौंदर्य मौत का
वाणी भी मधुर होती है
कोकिला  सी
अनुपम होता है
उसका आकर्षण
इसी लिये हर आदमी
किसी को भी बिना बतलाए
उसका हो जाता है।

मंगलवार, नवंबर 25, 2014

प्रकृति की तरह...

मुझे लगता है
अब पंछियों की चहचाहट भी
कम हो रही है
...मानवीय  संवेदना की तरह...

अब तो बसंत में भी
मुर्झा कर   गुल
बिखर रहे हैं इधर उधर
...हमारे सपनों की तरह...

अब तो पिंजड़े में बंद
पंछियों को भी
स्विकार है बंधन में रहना
....हमारे बच्चों की तरह...

नहीं सुनाई देती है अब
कहानियों में परियां
उन्हे भी मार दिया होगा
...अजन्मी बेटियों की तरह...

कहीं 21वी सदी में
हमारा अस्तित्व भी
खतरे में तो नहीं है
प्रकृति की तरह...
...

सोमवार, नवंबर 24, 2014

...जीने के लिये तुम्हारे शब्द ही काफी हैं...

    उस दिन जब
मेरा वहां अंतिम दिन था
मुझसे कहा था तुमने
लबों की इस प्यारी मुस्कान को
....कभी मिटने न देना...

आशीषो भरा
आप का कहा हर शब्द
याद रहेगा
जीवन भर मुझे
...हालात भी न छीन सकेंगे  मुझसे...

पर वो मुस्कान
अब लबों पर नहीं है
जो बहुत पहले
भेंट चढ़ गयी हालात की
...जीने के लिये तुम्हारे शब्द ही काफी हैं...

शनिवार, नवंबर 22, 2014

देश की इस धुंधली तसवीर को।



मैंने अपना मत
दिया था जिसे,
मतगणना में
उसे शिकस्त मिली।

न क्षेत्र देखा
न  जाती
न हवा की तरफ
अपना मत बदला।

दल को मैं
महत्व नहीं देता,
आशवासन,  भाषण
बहुत सुन चुका।

देखा था मैंने
व्यक्तित्व उसका
वो बदल सकता था
देश की इस धुंधली तसवीर को।

मंगलवार, नवंबर 18, 2014

हम कहां व्यस्त हैं?


मैं सोचता हूं कि
हमारा अधिकांश काम
आज  होता है मशीनों से
फिर भी हम
व्यस्त हो गये
मशीनों  से भी अधिक।

आज हमारे पास
किसी के लिये ही
यहां तक की खुद के लिये भी
वक्त नहीं है।

बिलकुल भी संदेह नहीं
मशीनें हम से अधिक
और अति शिघ्र काम करती है।
फिर सोचिये जरा
 हम कहां व्यस्त हैं?

रविवार, नवंबर 09, 2014

ये क्रांति लाना चाहता हूं...

तुम दे दो अपने शब्द मुझे,
मैं गीत बनाना चाहता हूं,
सोए हैं जो निदरा में,
उन्हे जगाना चाहता हूं...

नहीं मिलती, मजदूर को मजदूरी,
कर रहा है किसान आत्महत्या,
गांव कली के  हर बच्चे को,
स्कूल भिजवाना चाहता हूं...

प्रताड़ित हो रही   है औरत घर में,
लड़कियों के लिये   पग-पग पे खतरा,
गर्भ में पल रही बेटियों का,
जीवन बचाना चाहता हूं...

मृत हो गया है यौवन आज,
नशे से अनेकों होनहारों का,
नशे के सभी   गिरोह को,
फांसी पे चढ़ाना चाहता हूं....

शोषण न हो किसी का,
सभी को न्याय मिले,
 अंजान न हो   अधिकारों से कोई,
ये क्रांति लाना चाहता हूं...

शनिवार, नवंबर 08, 2014

दिवार...

ये दिवार
जो सहारा देती रही
हर उस आदमी को
जिसे आवश्यक्ता थी
इसके सहारे की...
आज ये दिवार
 गिरने वाली है,
जिसे सहारा देने को
कोई भी तैयार नहीं है...

इसके पत्थर भी,
जिन्हें छुपा रखा था,
प्रेम से अपने आगोश में
भी अलग होना चाहते हैं...
 

शुक्रवार, नवंबर 07, 2014

बापू...

बापू
 मैंने सुना है
किताबों में भी पढ़ा है
तुम भारत के सब से
निर्धन आदमी की तरह
जीवन जीते थे।


मैं ये भी जानता हूं
तुम अपना  हर  काम
स्वयं करते थे।
तुम तो
पहनने के लिये कपड़ा भी
अपने हाथों से बुना करते थे।
तुम्हारा चरित्र तुम्हारी लिखी
किताबों के दर्पण में
देखा है मैंने।

इस लिये आज
मैं महसूस कर सकता हूं कि
तुम्हारी आत्मा भी
आहत होगी
जब हर नेता की
प्रतिमाएं बनाने के लिये
हो रहा है खर्च
वो पैसा जिससे
देश के कयी जनों को
रोटी,
फुटपातियों को
घर,
अभागों को
शिक्षा,
मिल सकती थी।