अब तो चलना सीख लिया है,
पत्थर और अंगारों मे,
खड़ा खड़ा अब नहीं थकता,
इन लंबी लंबी कतारों में।
गांव मुझे बुलाता है,
याद भी बहुत आता है,
वहां सब कुछ मेरा अपना था,
यहां ढूंढ़ता हूं सब कुछ बाज़ारों में।
पैसा है सब कुछ, जाना अब,
जब बिकते धेखा पैसे में सब,
मैं कैसे चढ़ाता पुष्प मंदिर
मे,
वहां चढ़ रहा था चढ़ावा हजारों में।
बच्चों को जमीन पे रोते देखा,
कुत्तों को बिसतर पर सोते देखा,
तन पर वस्तर नहीं है,
संगमरमर जड़ें हैं दिवारों में।
सुन्दर प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार आपका-
बहुत सुंदर रचना !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (08-01-2014) को "दिल का पैगाम " (चर्चा मंच:अंक 1486) पर भी है!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
समाज में फैले विरोधाभास को बड़ी सुन्दरता से बयान किया है आपने !
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट सर्दी का मौसम!
नई पोस्ट लघु कथा
लाजवाब रचना...बहुत बहुत बधाई....
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@एक प्यार भरा नग़मा:-कुछ हमसे सुनो कुछ हमसे कहो
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएं