मंगलवार, मई 17, 2016

हम बंद कमरों में बैठे हैं

हम बंद कमरों में बैठे हैं,
पंछी तो गीत गाते हैं,
मां  के पास वक्त नहीं है,
 बच्चे लोरी सुनना चाहते हैं।
न कल कल झरनों नदियों की,
न किलकारियां मासूम बच्चों की,
संगीत नहीं है जीवन में,
निरसता में पल बिताते हैं।
वर्षों बाद  गया    चमन में,
लगा जैसे स्वर्ग यहीं है,
क्रितरिम हवा पानी से,
हम अपनी उमर घटाते हैं।
होता है जब  घरों  में बंटवारा,
सूई तक भी बांटी जाती है,
मां-बाप नहीं बंटते,
न कोई उनको पाना  चाहते हैं।
पैसा है उपयोग के लिये,
हम उपयोग मानव का करते हैं,
जोड़-जोड़ के पैसा रखते,
मानव को दूर भगाते हैं।

शनिवार, मई 07, 2016

काम नहीं नाम बिकता है...

सरहदों पर
खड़े हैं रक्षक
घर से दूर
मां की रक्षा के लिये।
पर हम नहीं जानते  उन्हें
बच्चे भी नहीं पहचानते उन्हें
क्योंकि उनकी लाइव कर्वेज नहीं होती।
 वे   अभिनय भी  नहीं कर रहे हैं।
उनका भाग्य मैदानों में लगने वाले
चौकों छक्कों पर निर्भर नहीं होता।
कहते हैं न,
जो दिखता है, वोही  बिकता है।
 एक किसान
 सब से अधिक काम करता है,
सुबह से शाम तक,
रात को भी नहीं सोता,
रखवाली करता है फसल की।
चिंता सताती है कर्ज की।
कई बार तो
दुखी होकर
आत्महत्या भी कर देता है।
क्योंकि वो जानता है
हमारे देश में
काम नहीं नाम बिकता है...