रविवार, सितंबर 04, 2016

मां के हाथ का भोजन ही  लगता है।


इन 32 वर्षों में,
सब कुछ बदला है।
पर्व, मेले,  त्योहार भी,
रिति-रिवाज, संस्कार भी।
पीपल नीम अब काट  दिये,
नल, उपवन भी बांट दिये,
अब चरखा भी कोई नहीं बुनता,
दादा की कहानियां भी नहीं सुनता।
मेरा गांव,  शहर बन गया,
भाईचारा  अपनापन गया।
पहले घर थे चार,
पर नहीं थी बीच में दिवार।
अब घर चालिस बन गये,
सब में गेट लग गये।
 अब आवाज देकर नहीं बुलाते,
मोबाइल से ही नंबर मिलाते।
पर आज भी नहीं बदली,
मेरे आनंद की वो गंगा,
जिसके पास,
स्नेह, ममता, त्याग,
आज भी पहले से अधिक है।
पर मैं जानता हूं,
वो अब थक चुकी है,
वो अब खाना नहीं बना  सकती,
पर नहीं मानती,
घर में  खाना वोही बनाती है।
वो नहीं देना चाहती,
अपना ये अधिकार किसी को,।
सत्य कहूं तो,
मुझे दुनियां में,
सबसे अच्छा,
मां के हाथ का भोजन ही  लगता है।