मां उदास हूं, तुम बिन शहर
में,
दिखते हैं ख्वाब, बस गांव के,
चलना पड़ता हैं, यहां संभल
के,
काम ही काम, न आराम यहां...
यहां आदमी तो असंख्य हैं,
नज़र आता नहीं, इनसान यहां,
खामोशी है, न घर कोई,
दिखते हैं केवल, मकान यहां...
यहां फूलों में, वो खुशबू नहीं,
विहग भी, गीत गाते नहीं,
पहचानते हैं, सब मुझे,
फिर भी हूं, अंजान यहां...
कहा था तुमने, शहर जाना,
पढ़ना-लिखना, पैसे कमाना,
न मिलती पैसे में, तुम्हारी
मम्ता,
दौड़ाता है हरपल, तुफान
यहां...
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग का भी समर्थन करें |ख़ुशी होगी
ब्लॉग बुलेटिन की मंगलवार ०५ अगस्त २०१४ की बुलेटिन -- भारतीयता से विलग होकर विकास नहीं– ब्लॉग बुलेटिन -- में आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ...
जवाब देंहटाएंएक निवेदन--- यदि आप फेसबुक पर हैं तो कृपया ब्लॉग बुलेटिन ग्रुप से जुड़कर अपनी पोस्ट की जानकारी सबके साथ साझा करें.
सादर आभार!
शहर में सब अपनी ही धुन में खोये रहते हैं गांव जैसा माहौल शहर में कहाँ ....सच घर नहीं मकां में रहते हैं लोग
जवाब देंहटाएं..सुन्दर संवेदनशील प्रस्तुति
बेहतरीन संवेदनशील प्रस्तुति
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