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मंगलवार, जुलाई 19, 2016

पर भविष्य से खेलते हैं...

मैं एकलव्य हूं,
मेरी रुह आहत नहीं हुई,
जब गुरु द्रोणाचार्य ने
अर्जुन को विश्व का सर्वश्रेष्ठ धर्नुधारी बनाने के लिये 
मुझ  से गुरु-दक्षिणा में,
मेरे दाहिने हांथ का अँगूठा मांगा था...
मेरे गुरु ने तो केवल
मेरे दाहिने हांथ का अँगूठा ही  मांगा था
जो सहहर्ष मैंने दे दिया था,
आज मेरा नाम तो,
गुरु द्रोणाचार्य और  अर्जुन से भी
 अधिक आदर से लिया जाता है...
 न मेरा जन्म राजवंश में हुआ,
न मेरा ऊंचा कुल था,
न सर्वश्रेष्ठ बनने की कामना,
मेरी गुरु पर श्रधा थी,
एकग्रता ने मुझे पहचान दी
मेरी  निष्ठा ही मेरे  काम आयी...
आज न मैं हूं,
न मेरे गुरु द्रोणाचार्य
न वो शिक्षा रहीं,
न सत्य को लिखने वाले,
अगर आज मेरे साथ वो अन्याय होता,
तो सत्य दब जाता कागजों में ही...
 आज मेरी रुह भी आहत है,
जब देखता हूं, सुनता हूं,
उन गुरुओं के बारे में,
जिनकी निष्ठा पैसे पर है,
जो गुरु-दक्षिणा तो नहीं मांगते,
पर भविष्य से खेलते हैं...


शुक्रवार, दिसंबर 11, 2015

जैसी संगत वैसी ही रंगत

कुंति गांधारी और द्रौण
ये सभी जीवन भर
करते हैं प्रयास
अपने बालकों के
उच्च चरित्र निर्माण करने का...
 एक अध्यापक  से
पढ़े हुए
या कभी कभी तो
एक  मां के दो पुत्र ही
एक राम एक रावण बन जाता  है...
 पांडव धर्म के पथ पे चले
क्योंकि उन्हे श्रीकृष्ण मिले
कौरवों को साथ मिला
कपटी शकुनी का
वो अधर्मी बनाए गये...
मां केकेयी धर्मआत्मा थी
सब से प्रीय थे उसे राम
मंथरा  की प्रेर्णा  से
एक असंभव कार्य को   भी
पल भर में संभव किया...
मैं सोचता हूं कि
वास्तविक चरित्र निर्माण
 संगत से होता है
जैसी संगत होती है
वैसी ही रंगत दिखती  है...
कोई आसमान छूता है
या तबाह होता है
 ये उस पर निर्भर नहीं करता
ये उसके मित्र, साथी  या 
  प्रेरक  पर निर्भर करता  है...

शुक्रवार, जुलाई 17, 2015

कमजोर आदमी

कमजोर आदमी
के साथ तो
अन्याय कल भी हुआ था
होता रहा है सदा
शकुनी हितेशी बनकर
अन्याय की याद दिलाता रहता है उसे
फिर कमजोर आदमी करता है वोही
जो चाहता है शकुनी

महाभारत के
युद्ध का कारण
न भिष्म की प्रतिज्ञा थी,
न धृतराष्ट्र का पुत्र मोह
न दुर्योधन की महत्वाकांक्षा
न ही  शकुनी का प्रतिशोध
न द्रोपदी का हठ
पांडव तो बिलकुल नहीं।
 मैं तो
युद्ध का एकमात्र कारण
विदुर निति को मानता  हूं
जिसने धृतराष्ट्र  से
 राजमुकुट झीना।
जो उसका अधिकार था
दिया था भाग्य ने उसे
ये अधिकार जेष्ठ बनाकर।

राजा बनने की
तीव्र  आकांक्षा की ज्वाला
सुलगी तब
जन्म हुआ दुर्योधन का जब
कहा विदुर ने ये
पांडू पुत्र ही युवराज होगा।
कैसे होने देता
 वोही अन्याय
अपने पुत्र के साथ भी।   

शनिवार, सितंबर 06, 2014

ये पृष्ठभूमि हैं, इस रण की,

आओ आचार्य यहां बैठो,
कुछ पल बिताओ मेरे पास,
  मैं आहत पड़ा हूं रण भूमि में,
चंद क्षण ही हैं तुम्हारे पास,
मेरी शपत, पक्षपात तुम्हारा,
ये पृष्ठभूमि हैं, इस रण की,

तुमने तेज अर्जुन में देखा,
उस तेज को खूब निखारा तुमने,
दुर्योधन में अबगुण असंख्य देखे,
न दूर करने का तुमने प्रयत्न किया,
न बनाया तुमने उसे सुयोधन,
ये पृष्ठभूमि हैं, इस रण की,

सौ कौरव, पांच पांडव,
शिष्य थे केवल तुम्हारे,
हस्तिनापुर का सुनहरा कल हो,
भेजे थे तुम्हारे पास ये सारे,
लक्ष्य था तुम्हारा केवल द्रुपद ,
ये पृष्ठभूमि हैं, इस रण की,

अर्जुन को उचित थी  शस्त्र  शिक्षा,
दुर्योधन को देते शास्त्र ज्ञान,
बाधक शकुनि को दंड दिलाते,
समझते सब को एक समान।
तुम्हारी प्रतिज्ञा, तुम्हारा स्वार्थ,
ये पृष्ठभूमि हैं, इस रण की,

ये कैसी शिक्षा, ये  कैसा ज्ञान,
भाई  भाई के ले रहा है प्राण,
न धर्म,  आचरण, मर्यादाएं,
न रह गयी अब   भावनाएं,
जो देखा, हम केवल  मौन रहे,
ये पृष्ठभूमि हैं, इस रण की,