शनिवार, अगस्त 01, 2015

मौत...

जन्म के साथ ही
मृत्यु भी
चलती है साथ
छाया की तरह।

मौत तो
हर क्षण ही
शत्रु की तरह
खोजती है अवसर

होता है जो
बुझदिल और कायर
उसे शिघ्र
बना लेती है अपना।

 वीरों से तो
भय लगता है
उसको भी
दूर दूर ही रहती है।

आती है
कयी  रूप रंग बदलकर
पर वीर तो
उसे पहचान लेते हैं।

हर साहसी को
वर्दान  होता है
इच्झा  मृत्यु का
भिष्म की तरह...


3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (02-08-2015) को "आशाएँ विश्वास जगाती" {चर्चा अंक-2055} पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत अच्छी रचना । कहीं कहीं शब्द गलत टाईप हो गए हैं । उन्हे ठीक कर लें ।
    बुझदिल, शिघ्र, कयी, वर्दान, इच्झा, भिष्म

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत अच्छी रचना । कहीं कहीं शब्द गलत टाईप हो गए हैं । उन्हे ठीक कर लें ।
    बुझदिल, शिघ्र, कयी, वर्दान, इच्झा, भिष्म

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