आयी थी मैंजब इस घर में,
कहां था मैंने तुम को मां,
तुमने भी बड़े प्रेम से,
मुझे बेटी कहकर पुकारा था,
आज तुम्ही कह रही हो,
क्या दिया तुम्हे, क्या लाया।
समझो मेरे मन के दर्द को।
तुम तो खुद भी औरत हो,
मेरी शिक्षा की खातिर,
पिता ने दिन रात एक किये हैं,
मेरे विवाह की खातिर,
उन्होंने कयी कर्ज लिये हैं,
कहां से देंगे वो इतना दहेज,
ये सुन, मां मर जाएगी,
मां उन्हे भी जीने दो,
तुम तो खुद भी औरत हो,
7 फेरे लेकर मैं,
आयी हूं इस घर में,
अर्थी मेरी जाएगी,
केवल अब इस घर से।
रूप रंग मेरे गुण देखो,
आयेगी लक्ष्मी, तुम्हारे घर चलकर,
मुझे स्नेह, संमान दो,
तुम तो खुद भी औरत हो,
आपकी लिखी रचना शनिवार 11 अक्टूबर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत खूब |सुन्दर रचना |
जवाब देंहटाएंati sundar ....
जवाब देंहटाएंBahut hi umdaa rachna .... Badhaayi !!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंसाजन नखलिस्तान
सच यही है !
जवाब देंहटाएंसुधार करने के प्रयास में एक बेहतरीन रचना :)
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आप आमंत्रित हैं :)
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंमन को नाम करती बहुत भावुक रचना --
जवाब देंहटाएंसुंदर अनुभूति ----
नारी का प्रश्न नारी से ...
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना ...
क्या कहने, बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंकविता का भाव और प्रस्तुतिकरण बेजोड़