मंगलवार, नवंबर 25, 2014

प्रकृति की तरह...

मुझे लगता है
अब पंछियों की चहचाहट भी
कम हो रही है
...मानवीय  संवेदना की तरह...

अब तो बसंत में भी
मुर्झा कर   गुल
बिखर रहे हैं इधर उधर
...हमारे सपनों की तरह...

अब तो पिंजड़े में बंद
पंछियों को भी
स्विकार है बंधन में रहना
....हमारे बच्चों की तरह...

नहीं सुनाई देती है अब
कहानियों में परियां
उन्हे भी मार दिया होगा
...अजन्मी बेटियों की तरह...

कहीं 21वी सदी में
हमारा अस्तित्व भी
खतरे में तो नहीं है
प्रकृति की तरह...
...

1 टिप्पणी:

  1. वाह वाह बहुत खूब ,सुन्दर प्रस्तुति .बहुत बधाई आपको . कभी यहाँ भी पधारें

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