मंगलवार, जनवरी 26, 2016

झुलस रहा है गणतंत्र भी

तिरंगा तो
लहरा रहा है
सुनो, समझो,
कुछ कह रहा है।
हम भूल रहे हैं
संविधान  को
देते हैं गाली
राष्ट्र गान को...

आज हजारों
माखन चोर
पीड़ित  हैं
कुपोषण  से।
मासूम किशोरों
के सपने
बेबस हैं

कारखानों में...
चाहते थे करना
जो अथक काम
उनके पास
रोजगार नहीं है।
जिन के पास
अनुभव हैं
वो सीमित कर दिये
आश्रमों में...

न जान सकी
जनता अब तक
अपने मत का
मोल ही।
बन गया चुनाव
खेल अब
जीतते  हैं
केवल पैसे वाले...
हर तऱफ
भ्रष्टाचार है
संसद देश की
बिलकुल लाचार है।
देखो आज
झुलस  रहा है
गणतंत्र भी
धर्म की आग में...

3 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ संध्या
    प्यारी कविता
    ज्ञान भी
    और अज्ञानता पर
    निशान भी
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. सार्थक और सामयिक रचना ।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत खूब , मंगलकामनाएं !

    जवाब देंहटाएं

ये मेरे लिये सौभाग्य की बात है कि आप मेरे ब्लौग पर आये, मेरी ये रचना पढ़ी, रचना के बारे में अपनी टिप्पणी अवश्य दर्ज करें...
आपकी मूल्यवान टिप्पणियाँ मुझे उत्साह और सबल प्रदान करती हैं, आपके विचारों और मार्गदर्शन का सदैव स्वागत है !