घर नहीं, मकान बनाते रहे
रंगीन नकाशियों से, चमकाते रहे,
मकान तो बन गया राजमहल सा
सब शहरों की ओर जाते रहे...
ये बड़ा शहर हैं
यहां मोटे किराए का छोटा घर है,
रौनक थी गांव के घरों में
यहां आवाज़ को भी अपनी दबाते रहे...
अपनी दाल थी अपनी रोटी,
नहीं पड़ता था कहीं दूर जाना,
सुविधाएं तो बेशुमार हैं,
भाईचारे को भूलाते रहे...
होते थे हम हैरान
जब आयी थी गांव में नयी मशीने,
अब बन गये खुद ही मशीन,
उन मशीनों को भूलाते रहे...
कहां खो गया वो मेरा गांव
वो मक्की की रोटी, उस पेड़ की छांव,
सावन सूना, सूना माघ भी,
बिल भर भर कर घबराते रहे...
रंगीन नकाशियों से, चमकाते रहे,
मकान तो बन गया राजमहल सा
सब शहरों की ओर जाते रहे...
ये बड़ा शहर हैं
यहां मोटे किराए का छोटा घर है,
रौनक थी गांव के घरों में
यहां आवाज़ को भी अपनी दबाते रहे...
अपनी दाल थी अपनी रोटी,
नहीं पड़ता था कहीं दूर जाना,
सुविधाएं तो बेशुमार हैं,
भाईचारे को भूलाते रहे...
होते थे हम हैरान
जब आयी थी गांव में नयी मशीने,
अब बन गये खुद ही मशीन,
उन मशीनों को भूलाते रहे...
कहां खो गया वो मेरा गांव
वो मक्की की रोटी, उस पेड़ की छांव,
सावन सूना, सूना माघ भी,
बिल भर भर कर घबराते रहे...
हकीकत को बयाँ करती हुयी रचना।
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