मंगलवार, जून 28, 2016

मैंने घर नहीं, एक मकान बनाया है....

आज सुबह फिर
मेरे पड़ोस से,
हंसमुख दादा   की
वोही आवज सुनाई दी,
"अब हाथ में लाठी,
आंख पे ऐनक,
थके पांव,
तन पे झुर्रियाँ
न मुंह में दांत,
झड़ गये बाल
बोलो बेटा
अब कहां जाऊं"...
याद आया मुझे,
एक दिन खलियान में,
हंस मुख दादा,
अपने मित्र से रोते हुए बोले थे,
"एक ख्वाइश थी,
अपना घर हो,
ख्वाइश पूरी करने के लिये,
दिन रात एक किये,
घर बन भी गया,
पर आज पता चला,
मैंने घर नहीं,
एक मकान बनाया है"....

8 टिप्‍पणियां:

  1. सच वह घर नहीं मकान है जहाँ अपनों को पूछ परख नहीं होती ..मर्मस्पर्शी रचना

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति सांख्यिकी दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।

    जवाब देंहटाएं
  3. सच..बहुत तकलीफ देती है ऐसी सच्‍चाई। अच्‍छा लि‍खा आपने

    जवाब देंहटाएं
  4. आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 03 जुलाई 2016 को लिंक की गई है............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  5. मर्मस्पृशि रचना ....यथार्थ लिए हुए

    जवाब देंहटाएं
  6. अाज हर जगह मकान ही तो खड़े हैं , अब घर कहां ??

    जवाब देंहटाएं

ये मेरे लिये सौभाग्य की बात है कि आप मेरे ब्लौग पर आये, मेरी ये रचना पढ़ी, रचना के बारे में अपनी टिप्पणी अवश्य दर्ज करें...
आपकी मूल्यवान टिप्पणियाँ मुझे उत्साह और सबल प्रदान करती हैं, आपके विचारों और मार्गदर्शन का सदैव स्वागत है !