आज सुबह फिर
मेरे पड़ोस से,
हंसमुख दादा की
वोही आवज सुनाई दी,
"अब हाथ में लाठी,
आंख पे ऐनक,
थके पांव,
तन पे झुर्रियाँ
न मुंह में दांत,
झड़ गये बाल
बोलो बेटा
अब कहां जाऊं"...
याद आया मुझे,
एक दिन खलियान में,
हंस मुख दादा,
अपने मित्र से रोते हुए बोले थे,
"एक ख्वाइश थी,
अपना घर हो,
ख्वाइश पूरी करने के लिये,
दिन रात एक किये,
घर बन भी गया,
पर आज पता चला,
मैंने घर नहीं,
एक मकान बनाया है"....
मेरे पड़ोस से,
हंसमुख दादा की
वोही आवज सुनाई दी,
"अब हाथ में लाठी,
आंख पे ऐनक,
थके पांव,
तन पे झुर्रियाँ
न मुंह में दांत,
झड़ गये बाल
बोलो बेटा
अब कहां जाऊं"...
याद आया मुझे,
एक दिन खलियान में,
हंस मुख दादा,
अपने मित्र से रोते हुए बोले थे,
"एक ख्वाइश थी,
अपना घर हो,
ख्वाइश पूरी करने के लिये,
दिन रात एक किये,
घर बन भी गया,
पर आज पता चला,
मैंने घर नहीं,
एक मकान बनाया है"....
सच वह घर नहीं मकान है जहाँ अपनों को पूछ परख नहीं होती ..मर्मस्पर्शी रचना
जवाब देंहटाएंआपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति सांख्यिकी दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
जवाब देंहटाएंसच..बहुत तकलीफ देती है ऐसी सच्चाई। अच्छा लिखा आपने
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 03 जुलाई 2016 को लिंक की गई है............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुन्दर ।
जवाब देंहटाएंमर्मस्पृशि रचना ....यथार्थ लिए हुए
जवाब देंहटाएंअाज हर जगह मकान ही तो खड़े हैं , अब घर कहां ??
जवाब देंहटाएंसच..मर्मस्पृशि रचना
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