गुल था मैं गुलजार का,
पात्र था सब के प्यार का,
मुझसे चमन की रौनक थी,
मैं राजा था बहार का...
कामदेव सा सौंदर्य था,
न दूसरा था कोई मुझसा,
सभी गले मिलते थे,
मनका था मैं गले के हार का...
मुर्झाते हुए फूलों पर,
हंसता था मैं अक्सर,
न समझा कभी माली को,
निष्ठुर था दिवार सा...
बैरी पवन ऐसी चली,
धरा पे मुझे गिरा गयी छली,
मेरी हस्ती मिटने लगी,
न महत्व घटा गुलजार का,
मुर्झाए हुए फूल को,
मिट्टी और धूल को,
कोई गले नहीं लगाता,
दस्तूर है संसार का...
जीवन में कभी अहंकार न करना,
मेरी तरह पछताओगे वरना,
मैं अल्प आयू में मुर्झा गया,
ये सिला मिला अहंकार
का...
Sundar kriti !
जवाब देंहटाएंसच कहा है ... अहंकार देखने नहीं देता अपने से आगे और इन्सान मुंह के बल गिर जाता है ...
जवाब देंहटाएंखुबसूरत अभिवयक्ति......
जवाब देंहटाएंबढ़िया है आदरणीय कुलदीप जी-
जवाब देंहटाएंआभार -
खुबसूरत भाव
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (29.07.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी. कृपया पधारें .
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी और सच्ची अभिव्यक्ति....
जवाब देंहटाएंअनु
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