अनुपम है रचना तेरी रचनाकार, तुझे किस रूप में पूजे संसार।
सब को अलग रूप आकार दिया, पर खुद क्यों न कोई रूप लिया।
किसी उपवन में पतझड़ लायी, किसी गुलशन को खूब महकाया,
सोचता हूं कभी कभी, ये जग तुने कैसा बनाया।
किसी को दिये ढेरों दुःख, किसी कि झोली में डाले सुख।
कोई तो गलीचों पर सोता है, कोई फुटपातों पर रोता है।
किसी को दी खूब हंसी, किसी को जी भर के रुलाया।
सोचता हूं कभी कभी, ये जग तुने कैसा बनाया।
किसी के बंगले अलिशान है, किसी कि छत बस आसमान है।
किसी कुल में हो रहा है विवाह, किसी कुल का बुझ गया है दिया।
कोई ढूंढ़े मरघट के लिये जमीन,
किसी को तूने भूपति बनाया।
सोचता हूं कभी कभी, ये जग तुने कैसा बनाया।
अगर तु मनुज को दुःख न देता,
तेरा नाम प्रभु कोई न लेता।
क्षमा दया को भूल जाता जन,
पाषाण बन जाता उसका मन।
कहीं धूप कहीं है छांव, अदभुत है प्रभु तेरी माया।
सोचता हूं कभी कभी, ये जग तुने कैसा बनाया।
जवाब देंहटाएंफुर्सत में भगवान् हैं, धरे हाथ पर हाथ ।
धरती पर ही हो गए, लाखों स्वामी नाथ ।
लाखों स्वामी नाथ , भक्त ले लेकर भागे ।
चढ़े चढ़ावा ढेर, मनोरथ पूरे आगे ।
करिए कुछ भगवान्, थामिए गन्दी हरकत ।
करें लोक कल्याण, त्यागिये ऐसी फुर्सत ।।
बहुत सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंवाह...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रचना....
अनु
रविकर जी धन्यवाद मेरी रचना पर इतना अनुग्रह करने के लिये... ऐक्सप्रैशन एवम् कैलाश जी का भी मेरी रचना पर टिप्पणी करने के लिये धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत ही बेहतरीन रचना..:-)
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जवाब देंहटाएंअगर तु मनुज को दुःख न देता, तेरा नाम प्रभु कोई न लेता।
क्षमा दया को भूल जाता जन, पाषाण बन जाता उसका मन।
कहीं धूप कहीं है छांव, अदभुत है प्रभु तेरी माया।
सोचता हूं कभी कभी, ये जग तुने कैसा बनाया।
अपने अर्जित कर्म बढ़ाओ,सुख सारे जग का पाओ ,