लोकतंत्र घायल पड़ा है, न्याय लहूलुहान पड़ा है,
सुनाई देती है संसद में, नेताओं की उच्छ आकांक्षाएं।
बिछी हुई है शकुनी की चौसर, भारत मां लगी है दाव पर,
सोच रहे हैं धर्मराज, कहीं कृष्ण न आ जाए।
राजधानी में बैठें हैं तकशक, भयभीत हैं देश की जंता,
भिष्म मौन है तब से आज तक, चाह कर भी न बोल पाए।
देखते हैं रोज संसद में तमाशा, फैंककता है शकुनी वोट का पासा,
कर के नेता अभिनय, केवल जंता को भरमाए।
जागो जंता समय आ गया, लोकतंत्र पर कोहरा छा गया,
बुलाओ सुभाष को राज संभालो, भारत मां बार बार बुलाए।
बेहतर लेखन !!
जवाब देंहटाएंउम्दा समसामयिक रचना | व्यवस्था पे चोट करती |
जवाब देंहटाएंसार्थक काव्य रचना !!
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