सुबह चलते हुए पथ में,
पैर एक पत्थर से टकराया,
चोट लगी कुछ रक्त बहा,
फिरक कदम आगे को बढ़ाया।
गलती मेरी ही थी,
जिसे संभल कर न चलना आया।
दोषीतो वो है,
जिसने इसे पत्थर बनाया।
खुद भी खाता है ये सब की ठोकर,
न खुद ये इस पथ पे आया।
खुद भी खाता है ये सब की ठोकर,
न खुद ये इस पथ पे आया।
सुन्दर रचना -
जवाब देंहटाएंआदरणीय भाई जी-
बहुत बहुत शुभकामनायें-
बेचारा पत्थर ... किस्मत की बात है ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ! फिरक को फिर एक कर लें ए टंकित होने से रह गया है !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबेहद की खूबसूरती ,अभिनव रूपकत्व लिए हैं तमाम गज़लें।
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना.
जवाब देंहटाएंउम्दा भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@ग़ज़ल-जा रहा है जिधर बेखबर आदमी
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