पत्थर को इनसान
समझकर,
मन मंदिर में बसाया
हमने...
याद करके अब तक उन
को,
केवल समय गवाया
हमने,
न देखी वर्षों
से बसंत बहार,
न सावन आया, न महका
गुलज़ार,
नैनों में तस्वीर थी
उनकी,
उन्हे बुलाते हुए,
हर पल बिताया...
जलकर पतंगा खाक हुआ,
दिपक तो फिर भी जलता
रहा,
ऐ परवाने तेरी तरह
ही,
हर पल खुद को जलाया
हमने...
आकर्षण को तुमने
प्रेम माना,
मन का सौंदर्य न पहचाना,
स्तंभ है प्रेम का केवल विश्वास,
हर कदम पे धोखा खाया
हमने...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (27-05-2014) को "ग्रहण करूँगा शपथ" (चर्चा मंच-1625) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
सुन्दर!
जवाब देंहटाएंnew post ग्रीष्म ऋतू !
गज़ब संवेदना...
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति।
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