सोमवार, मई 26, 2014

केवल समय गवाया हमने,



पत्थर को इनसान समझकर,
मन मंदिर में बसाया हमने...
याद करके अब तक उन को,
केवल समय गवाया हमने,

न देखी वर्षों से  बसंत  बहार,
न सावन आया, न महका गुलज़ार,
नैनों में तस्वीर थी उनकी,
उन्हे बुलाते हुए, हर पल बिताया...

जलकर पतंगा खाक हुआ,
दिपक तो फिर भी जलता रहा,
ऐ परवाने तेरी तरह ही,
हर पल खुद को जलाया हमने...

आकर्षण को तुमने प्रेम माना,
 मन का सौंदर्य न पहचाना,
स्तंभ  है प्रेम का केवल  विश्वास,
हर कदम पे धोखा खाया हमने...

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (27-05-2014) को "ग्रहण करूँगा शपथ" (चर्चा मंच-1625) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. गज़ब संवेदना...

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