गुरुवार, जून 06, 2024

धरती का क्रंदन


शिखर झुके हुए, मानो आंसू बहा रहे हों,
दर्द भरी आवाज़, गूंज रही चारों ओर।
पेड़ कट रहे हैं, जंगल उजड़ रहे हैं,
नदियाँ सूख रही हैं, मानव तड़प रहा है।
सुरंगें कट रही हैं, मेरा सीना चीरकर,
प्रकृति से खिलवाड़, अब और न सहन कर।
मेरी रगों में, जहर घुल रहा है,
हवा प्रदूषित है, ज़हर सांसों में मिल रहा है।
कुल्हाड़ी देखकर, वृक्ष कांप रहे हैं,
कुछ पक्षी मर रहे हैं, कुछ लुप्त हो रहे हैं।
फूल मुरझा गए हैं, हवा दूषित है,
नदियां रो रही है, वो भी प्रदुषित हैं।
सोचता है मानव, वो विकास कर रहा है,
पर प्रकृति का संतुलन, बिगड़ रहा है।
मेरी नींव कमजोर हो रही है, धीरे-धीरे,
मैं खिसक रहा हूँ, धीरे-धीरे।
भूकंप आ रहे हैं, विनाश ला रहे हैं,
कभी बाढ़ कभी सूखा, तबाही मचा रहे हैं।
ओ मनुष्य! रुक जाओ, विनाश की राह पर,
प्रकृति से दोस्ती करो, यहीं ठहर जाओ।
मुझे बचाओ, अपने अस्तित्व को बचाओ,
धरती को बचाओ, जीवन को बचाओ।