शनिवार, अक्टूबर 25, 2014

आवारा न कहें...

हर उत्सव, त्योहारों पर,
होती थी मेरी पूजा,
हर पूजा, यज्ञ   के भोग का,
प्रथम अंश  खिलाते थे मुझे।
33 क्रोड़  देव बसते हैं,
होता है जहां मेरा वास,
भूत पिसाच भी नहीं आते वहां
जहां  मििलता है  मुझे मान।
बस में था  तब तक मैंने,
जीवन भर अपना दूध पिलाया।
पर आज मैं बूढ़ी हूं
 दूध देना मेरे बस में नहीं।
तुम्हारे घर को सदा ही
मैंने अपना घर समझा,
 सदा ही, तुम्हारे घर में
 धन भैवभ खुशहाली लाई,
सुख में तुम्हारे साथ रही,
दुख में भी बहुत रोई।
आज मैं बूढ़ी हूं,
केवल  घास फूस तो खाती हूं,
कल लगता था मेरा गोवर भी पावन,
आज  बोझ मैं  ही लगती हूं।
जब आज    मुझे घर से निकाला,
रोई मैं भी मां की तरह,
इससे तुम्हारा  कहीं अहित न हो,
मांगती हूं ईश्वर से ये मन्नत बार बार।
मैं दूध का कर्ज नहीं मांग रही,
न ही  चाहिये मुझे तुमहारे हिस्से की कोई चीज।
तुम मेरे लिये बस इतना करो,
मुझे भय है कहीं लोग,
 कल मुझे भी
 आवारा न कहें...

8 टिप्‍पणियां:

  1. संवेदना भरी प्रस्तुति ...

    जवाब देंहटाएं
  2. सुंदर प्रभावी रचना...मंगलकामनाएँ...

    जवाब देंहटाएं
  3. उत्कृष्ट प्रस्तुति।

    जवाब देंहटाएं
  4. गाऊ माता के उपर बहुत कम कविताएँ लिखी गई हैं
    अच्छी रचना के लिए ------ बधाई
    http://savanxxx.blogspot.in

    जवाब देंहटाएं

ये मेरे लिये सौभाग्य की बात है कि आप मेरे ब्लौग पर आये, मेरी ये रचना पढ़ी, रचना के बारे में अपनी टिप्पणी अवश्य दर्ज करें...
आपकी मूल्यवान टिप्पणियाँ मुझे उत्साह और सबल प्रदान करती हैं, आपके विचारों और मार्गदर्शन का सदैव स्वागत है !