अनुपम है रचना तेरी रचनाकार, तुझे किस रूप में पूजे संसार।
सब को अलग रूप आकार दिया, पर खुद क्यों न कोई रूप लिया।
किसी उपवन में पतझड़ लायी, किसी गुलशन को खूब महकाया,
सोचता हूं कभी कभी, ये जग तुने कैसा बनाया।
किसी को दिये ढेरों दुःख, किसी कि झोली में डाले सुख।
कोई तो गलीचों पर सोता है, कोई फुटपातों पर रोता है।
किसी को दी खूब हंसी, किसी को जी भर के रुलाया।
सोचता हूं कभी कभी, ये जग तुने कैसा बनाया।
किसी के बंगले अलिशान है, किसी कि छत बस आसमान है।
किसी कुल में हो रहा है विवाह, किसी कुल का बुझ गया है दिया।
कोई ढूंढ़े मरघट के लिये जमीन,
किसी को तूने भूपति बनाया।
सोचता हूं कभी कभी, ये जग तुने कैसा बनाया।
अगर तु मनुज को दुःख न देता,
तेरा नाम प्रभु कोई न लेता।
क्षमा दया को भूल जाता जन,
पाषाण बन जाता उसका मन।
कहीं धूप कहीं है छांव, अदभुत है प्रभु तेरी माया।
सोचता हूं कभी कभी, ये जग तुने कैसा बनाया।