न बच्चों के हाथ में,
कागज की कश्तियाँ
न इंतजार है,
परदेस से पिया का।
नहीं दिखते अब
झूलें बागों में,
न मेलों मे रौनक,
न तीज त्योहारों में।
अब तो सावन
डराता है,
विक्राल रूप
दिखाता है।
कहीं बाड़ आती है,
कहीं फटते हैं बादल,
होती है प्रलय,
करहाते हैं मानव।
सूखे नाले भी
कोहराम मचाते हैं,
गांव, शहर,
बहा ले जाते हैं।
न वो हरियाली,
न वो रौनक,
नहीं आयेगा,
अब वो सावन...
कागज की कश्तियाँ
न इंतजार है,
परदेस से पिया का।
नहीं दिखते अब
झूलें बागों में,
न मेलों मे रौनक,
न तीज त्योहारों में।
अब तो सावन
डराता है,
विक्राल रूप
दिखाता है।
कहीं बाड़ आती है,
कहीं फटते हैं बादल,
होती है प्रलय,
करहाते हैं मानव।
सूखे नाले भी
कोहराम मचाते हैं,
गांव, शहर,
बहा ले जाते हैं।
न वो हरियाली,
न वो रौनक,
नहीं आयेगा,
अब वो सावन...
दुखद !
जवाब देंहटाएंपर्यावरण विनाश के जिम्मेवार हम मानव ही हैं ... मंगलकामनाएं आपको !!
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 'जिंदगी के सफ़र में किशोर कुमार - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने
जवाब देंहटाएंवो सावन अब कहाँ