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शुक्रवार, दिसंबर 05, 2014

केवल शस्त्र चलाते हैं अश्वस्थामा की तरह।

 एक स्वार्थ के लिये
काटते हैं उस  वृक्ष को
जो किसी से कुछ नहीं कहता
न किसी से कुछ मांगता है।
खड़ा है वर्दान बनकर
 घर हैं  इन पंछियों का भी।

देता है स्वच्छ हवा
हमे जीने के लिये भी ।
आने जाने वाले पथिक को
मिलती है   छाया
भूख लगने पर
खाते हैं उसके फल

अपने स्वार्थ के लिये
बन जाते हैं दानव
भूल जाते हैं हर परोपकार
नहीं रहती औरों की चिंता
नहीं देखते अपने कल को
केवल शस्त्र चलाते हैं अश्वस्थामा की तरह।

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना शनिवार 06 दिसम्बर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (06-12-2014) को "पता है ६ दिसंबर..." (चर्चा-1819) पर भी होगी।
    --
    सभी पाठकों को हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर संदेशप्रद कविता ।

    जवाब देंहटाएं

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