स्वागत व अभिनंदन।

गुरुवार, दिसंबर 11, 2014

काफी है तुम्हारे ही  विनाश के लिये।

भारत विभाजन के बाद
उठी चिंगारी वहां
यहां भी।
ज्वाला बन उसने
हाहाकार मचाया यहां
खाक  बनाया वहां भी।
यहां की चिंगारी
तो बुझ गयी थी
कुछ ही महिनों में।
वहां   चिंगारी आज भी
सुलग रही है
नफरत की हवा से।
चाह  कर भी
इस चिंगारी को
बुझा न सके हम।
तुम्हारा ये बारूद का कोष
और ये एक  चिंगारी
काफी है तुम्हारे ही  विनाश के लिये।

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