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शुक्रवार, फ़रवरी 14, 2014

वैलेंटाइन-डे



शिक्षा के  मंदिर नापाक हुए,
मर्यादाएं, चरित्र खाक हुए,
चली है ये हवा पश्चिम से,
कहते हैं इसे वैलेंटाइन-डे...

प्रेम के नाम पर केवल अश्लीलता,
प्रेम में होती है पावनता,
ये प्रेम नहीं है तन का आकर्षण,
सच्चे प्रेमी यहां अनेकों थे...

प्रेम है, बसंत की पतंग में,
दिवाली, राखी, होली के रंग में,
प्रेम है सावन की रुत में,
प्रेम क्या है पूछो राधा से...

भटक न जाए युवा पीढ़ी,
युवा है देश की सीढ़ी,
ऐसे पर्वों को महत्व देकर,
बचपन न झीनों बच्चों से...

कोई कहता इसे स्वतंत्रता,
कोई कहता है  आधुनिकता,
वैलेंटाइन-डे   केवल ग्रहण है,
हमारी भारतीय संस्कृति पे...


9 टिप्‍पणियां:

  1. सही कहा है. सुंदर रचना .

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  2. बाहरी रोशनी की चकाचौंध है ये -जो ठीक से देखने समझने नहीं देती .

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  3. इसको बस प्रेम .. अमर प्रेम के माध्यम तक ही देखना उचित है ... दिखावा प्रेम नहीं ...

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  4. wastutah .....prem me dikhawa ...bilkul bhram hai ........sundar ......

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  5. कुलदीप जी समस्या का रेखांकन करती है आपकी रचना देह केंद्रित आकर्षण का प्रेम तो एक सूक्ष्म तत्व है स्थूलता से परे। राधा तो योगमाया है कृष्ण का विलास है स्वांश है करसिहं का ही अंश है।

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  6. कुलदीप जी समस्या का रेखांकन करती है आपकी रचना देह केंद्रित आकर्षण का प्रेम तो एक सूक्ष्म तत्व है स्थूलता से परे। राधा तो योगमाया है कृष्ण का विलास है स्वांश है कृष्ण का ही अंश है।

    जवाब देंहटाएं
  7. कुलदीप जी समस्या का रेखांकन करती है आपकी रचना देह केंद्रित आकर्षण का.

    प्रेम तो एक सूक्ष्म तत्व है स्थूलता से परे। राधा तो योगमाया है कृष्ण का विलास है स्वांश है कृष्ण

    का ही अंश है।

    जवाब देंहटाएं

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