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शनिवार, जुलाई 27, 2013

अहंकार



गुल था मैं गुलजार का,
पात्र था सब के प्यार का,
मुझसे चमन की रौनक थी,
मैं राजा था बहार का...

कामदेव सा सौंदर्य था,
न दूसरा था कोई मुझसा,
सभी गले मिलते थे,
 मनका  था मैं  गले के हार का...

मुर्झाते हुए फूलों पर,
हंसता था मैं अक्सर,
न समझा कभी माली को,
निष्ठुर था दिवार सा...

बैरी पवन  ऐसी चली,
धरा पे मुझे गिरा गयी छली,
मेरी हस्ती मिटने लगी,
न महत्व घटा गुलजार का,

मुर्झाए  हुए फूल को,
मिट्टी और धूल को,
कोई गले नहीं लगाता,
दस्तूर है संसार का...

जीवन में कभी अहंकार न करना,
मेरी तरह पछताओगे वरना,
मैं अल्प आयू में मुर्झा गया,
ये सिला मिला अहंकार का...

8 टिप्‍पणियां:

  1. सच कहा है ... अहंकार देखने नहीं देता अपने से आगे और इन्सान मुंह के बल गिर जाता है ...

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  2. खुबसूरत अभिवयक्ति......

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  3. बढ़िया है आदरणीय कुलदीप जी-
    आभार -

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (29.07.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी. कृपया पधारें .

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  5. बहुत अच्छी और सच्ची अभिव्यक्ति....

    अनु

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ये मेरे लिये सौभाग्य की बात है कि आप मेरे ब्लौग पर आये, मेरी ये रचना पढ़ी, रचना के बारे में अपनी टिप्पणी अवश्य दर्ज करें...
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