स्वागत व अभिनंदन।

सोमवार, मई 02, 2016

जो आदमी को, इनसान बना सके...

एक धर्म था
वैदिक धर्म
एक जाती थी
मानव जाती,
एक भाषा थी
जिस में वेद रचे,
एक शिक्षा थी,
वैदिक शिक्षा,
एक लोक था
भूलोक....
नाम के लिये,
आज धर्म कई हैं,
जातियों की तो
गिनती नहीं हैं,
हर भाग की
अपनी भाषाएं हैं,
शिक्षा का कोई
अब आधार नहीं है,
धरा बंट चुकी है
कई भागों में...
जब से बंटा है
ये सब कुछ,
बंटा है तब से 
 मानव भी  कई भागों में।
न अमन है कहीं,
न सुखी है कोई।
न वेदों का ज्ञाता है कोई,
जो पथ दिखा सके।
वो धर्म ही  खंडित हुआ है,
जो आदमी को, इनसान बना सके...




4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन सत्यजीत रे और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 04 मई 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (04-05-2016) को "सुलगता सवेरा-पिघलती शाम" (चर्चा अंक-2332) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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ये मेरे लिये सौभाग्य की बात है कि आप मेरे ब्लौग पर आये, मेरी ये रचना पढ़ी, रचना के बारे में अपनी टिप्पणी अवश्य दर्ज करें...
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