स्वागत व अभिनंदन।

सोमवार, अक्टूबर 05, 2015

हमेशा के लिये ही...

ऐ आंसू
मैं रिणी हो गया
आज से तुम्हारा
शायद ये रिण
न चुका पाऊंगा
आजीवन ही...
मन  से निकलकर
 तुम आँखों में उतरे
 मैंने देखा तुमको
गिरते हुए भी
क्षण भर में ही
तुम गये कहां
दे कर  शीतलता
मेरे मन को...

तुमने मेरा साथ
दिया तब
जब मैं अकेला ही
अपने मन का दर्द
मन में दबाए
भटक रहा था
उस परवाने की तरह
शमा ने जिसे
जलाना  तो चाहा
पर उसके प्राण नहीं निकल सके...

तुम सा
परोपकारी भी
कौन होगा जग में
ले गया बहाकर
मेरे मन  के दर्द को
और खुद मिट गया
हमेशा के लिये ही...

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति ,कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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  2. तुम सा
    परोपकारी भी
    कौन होगा जग में
    ले गया बहाकर
    मेरे मन के दर्द को
    और खुद मिट गया
    हमेशा के लिये ही...

    मन को शांत करने का यह कारगर उपाय है. सुंदर कविता.

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