स्वागत व अभिनंदन।

सोमवार, सितंबर 29, 2014

बोझ बैग का उठाना है मुशकिल,

बोझ बैग का उठाना है  मुशकिल,
करेंगे कैसे ये पढ़ाई,
खेल के लिये वक्त  नहीं है,
चेहरे पे है उदासी छाई...

पग-पग पे स्कूल  खुले हैं,
फिर घरों  में बच्चे क्यों?
सरकार की दूरदर्शी  योजनाएं,
सेवाएं क्यों  न काम आयी...

अभी बोलना भी न सीखा,
कैसे पढ़ेगा वो किताब,
बनाना चाहते हैं बच्चों को मशीन,
जैसे मानव ने है    मशीन बनाई...

दिनभर स्कूल, शाम को ट्यूशन,
अब हमेशा ही   है टैस्ट की चिंता,
प्रथम आना है कक्षा में,
मां बाप ने ये रट है  लगाई...

वो शिक्षा क्या, जिससे बचपन मुर्झाए,
खेल खेल में बच्चों को पढ़ाएं,
प्रकृति से न इन्हे दूर ले जाएं,
वेदों में  ये बात समझाई...

गुरुवार, सितंबर 25, 2014

हे ईश्वर...

हे ईश्वर,
तुम्हारे मंदिर में,
आते हैं वो,
जिन के पास
होता है सब कुछ,
और पाने की इच्छा लिये
तुम्हे प्रसन्न करने के लिये,
चढ़ाते हैं चढ़ावा।
और ये  सोचकर
मन ही मन में
प्रसन्न  होते हैं,
 कि तुम प्रसन्न हो गये हो...

तुम्हारे मंदिर के बाहर,
तुम्हारे भक्तों के सामने,
एक के बाद दूसरा
दोनों हाथ फैलाता हुआ
अपनी विवशता बताता हुआ,
नजर आता है।
ये देखकर सोचता हूं,
वो तुम से क्यों नहीं मांगता?
हरएक के आगे  क्यों गिड़गिड़ाता है?
क्या तुम भी उसकी नहीं सुनते,
वो हर आने जाने वाले से,
मांगता है तुम्हारे नाम पर...

मंगलवार, सितंबर 23, 2014

कैसे चलते साथ तुम्हारे...

कैसे चलते  साथ तुम्हारे,
जब पग पग पे दिये धोखे तुमने,
कभी विवादों की बिजलियां गिराई,
कभी पथ में शूल बिछाए तुमने...

खुशनुमा थी जिंदगी,
असंख्य अर्मान थे,
सरल  भावुक हृदय को,
जलाकर राख बनाया तुमने...

पहचान न सका मैं तुम को,
तुम तराशा हुआ पत्थर हो,
चलते चलते मुझे  पथ में
बार बार गिराया तुमने...

राह में पड़े  पत्थर से पूछा
तुम्हे पत्थर बनाया किसने,
दशा उसकी देख मैं रो पड़ा,
उसे भी पत्थर बनाया तुमने...

इतराओ न अपनी जीत पर,
जो मिली है विश्वासघात से,
जो जो मैंने खोया है,
वोही है पाया तुमने...


शनिवार, सितंबर 20, 2014

प्राजय...

हम अक्सर जीवन में,
जीत के जश्न    को
शिघ्र भूल जाते हैं...

जीवन में मिली प्राजय को,
वर्षों तक याद करके,
आंसू बहाते हैं...

पर प्राजित होने की पीड़ा,
समझ सकता है वोही,
जो खुद प्राजित हुआ हो...

अगर जीतने वाला,
छल या विश्वासघात से जीता हो
तो वो जीत नहीं है...

 पर प्राजय चाहे,
धर्म या अधर्म से हुई हो,
प्राजय तो प्राजय है...

शुक्रवार, सितंबर 19, 2014

किसने यहां क्याहै  पाया...

सांझ हुई तो घर आये पंछी,
नीड़ अपना, टूटा पाया।
रैन बिताई,  पेड़ो पर
भोर हुई तो नव नीड़ बनाया...
जो हुआ उसे भूल गये,
फिर हर पल अगला  हंस के बिताया।
यहां तो सब कुछ नशवर हैं,
किसने यहां क्याहै  पाया...
 

गुरुवार, सितंबर 18, 2014

पीड़ित  है इस लिये     भारत मां...+


विदेशी हमने दूर भगाए,
अपने नियम, कानून बनाए,
अपनों को ही सत्ता दी,
पीड़ित  है फिर    भी भारत मां...

हिंदू मुस्लिम  के झगड़े सुलझाए,
भाषा जाति के विवाद  मिटाए,
दुश्मनों को भी हमने  मात दी,
पीड़ित  है फिर    भी भारत मां...

तुम मुझे वोट दो,
मैं तुम्हे खुशहाली दूंगा,
ये कहने वाले नेता बहुत हैं,
पीड़ित  है फिर    भी भारत मां...

विपक्षी चाहते कुर्सी पाना,
सत्ता पक्षियोम का है काम खाना,
पिस रही है बीच में  केवल   जंता,
पीड़ित  है इस लिये     भारत मां...

मंगलवार, सितंबर 16, 2014

ये शस्त्र उठाकर...

देखते हैं हम अक्सर,
हर शहर, हर गली  में,
होटल और ढाबोपर,
बर्तन धोते हुए बच्चे को,
 जानते हैं हम सब,
ये बाल शोषण है,
कानूनी अपराध है।
हम आवाज उठा सकते हैं,
छोड़ो हमे क्या,
ये सोच कर,
हम निकल पड़ते हैं,
अपनी राह पर...

कानून तो केवल,
शस्त्र हैं हमारे पास,
अन्याय से लड़ने का,
न्याय पाने का,
हम सब दोषी हैं,
ये समाज दोषी हैं,
जो शस्त्र होने पर भी,
उस का प्रयोग नहीं करते,
रुक सकता है शोषण,
मिल सकता है सब को न्याय,,
जीते जंग,
 ये शस्त्र उठाकर...

शनिवार, सितंबर 13, 2014

तब हिंदी ने ही जगाया हमे...


[आप सब को 14 सितंबर यानी हिंदी दिवस की शुभ कामनाएं...]
जब हम गुलाम थे,
 विश्व में गुम नाम थे,
मिट गयी थी हमारी पहचान,
 तब हिंदी ने ही  जगाया हमे...


हम कौन थे?
 कैसा था अदीत हमारा?
हम क्यों गुलाम हुए,
ये हिंदी ने ही  बताया हमे...

कहीं मंदिर मस्जिद का झगड़ा था,
कोई मांग रहे थे  खालीस्तान,
पानी पर  भी विवाद था,
हिंदी ने ही  एक बनाया हमे...

जिन से हमने आजादी पाई,
भाषा उनकी ही अपनाई,
सोचो  कैसे आजाद हैं हम?
ये अब तक समझ न आया हमे...

बुधवार, सितंबर 10, 2014

मेरे गांव का वो वृक्ष

मेरे गांव का वो वृक्ष,
जिसकी छाया में हम,
बैठकर घंटों,
बाते किया करते थे...
हम सोचा करते थे,
यहां आस पास कोई नहीं है,
पर वो खामोश वृक्ष,
सब कुछ सुना करता था...

इसी लिये वो वृक्ष भी,
हम दोनों के जुदा होने पर,
बुलाता है तुम्हे अक्सर,
मुझ से भी कुछ कहना चाहता है...
 

मंगलवार, सितंबर 09, 2014

आता  हूं मैं अपनी सुनाने...

आता  हूं मैं मंदिर में,
निर्मल मन से,  धूप  जलाने, 
ईश्वर मेरी  सुनें, न सुनें,
आता  हूं मैं अपनी सुनाने...

राम-नाम का एक शब्द,
महकाता है मेरी   रुह को,
शोर-गुल से दूर यहां,
आता हूं मैं  मन बहलाने...

कभी खोना, कभी पाना,
होता रहता है जीवन में,
आता हूं कभी नम आंखों से,     
 कभी खुशियों के पल बिताने...

अरज है बस एक मेरी,
बुलाते रहना इस दर पे,
आता रहूं,  पुष्प लेकर,
बस तुम्हारा आशीश पाने...

सोमवार, सितंबर 08, 2014

ये भ्रम नहीं, सत्य है...

होती है मृत्‍यु  जब  किसी की,
हम सब उदास होते हैं,
अब न आयेगा वो कभी,
जी भरके  हम  रोते हैं,
ये रोना-धोना चार दिन का,
ये भ्रम नहीं, सत्य है...

मृत्‍यु   है सत्य, जीवन है नशवर,
बैठे हैं हम, ये सत्य भूलकर,
जो आया है, उसे जाना है,
ये तन,  खाक हो जाना है,
जाना है छोड़, यहीं सब,
ये भ्रम नहीं, सत्य है...

जियोगे फूल बन, नाम होगा,
कांटों सा जीवन, बदनाम होगा,
जलती है शमा, देती है प्रकाश,
न रखती है, लेने वाले से आस,
महामानव, न मरता है कभी,
ये भ्रम नहीं, सत्य है...









जिन्दा

शनिवार, सितंबर 06, 2014

ये पृष्ठभूमि हैं, इस रण की,

आओ आचार्य यहां बैठो,
कुछ पल बिताओ मेरे पास,
  मैं आहत पड़ा हूं रण भूमि में,
चंद क्षण ही हैं तुम्हारे पास,
मेरी शपत, पक्षपात तुम्हारा,
ये पृष्ठभूमि हैं, इस रण की,

तुमने तेज अर्जुन में देखा,
उस तेज को खूब निखारा तुमने,
दुर्योधन में अबगुण असंख्य देखे,
न दूर करने का तुमने प्रयत्न किया,
न बनाया तुमने उसे सुयोधन,
ये पृष्ठभूमि हैं, इस रण की,

सौ कौरव, पांच पांडव,
शिष्य थे केवल तुम्हारे,
हस्तिनापुर का सुनहरा कल हो,
भेजे थे तुम्हारे पास ये सारे,
लक्ष्य था तुम्हारा केवल द्रुपद ,
ये पृष्ठभूमि हैं, इस रण की,

अर्जुन को उचित थी  शस्त्र  शिक्षा,
दुर्योधन को देते शास्त्र ज्ञान,
बाधक शकुनि को दंड दिलाते,
समझते सब को एक समान।
तुम्हारी प्रतिज्ञा, तुम्हारा स्वार्थ,
ये पृष्ठभूमि हैं, इस रण की,

ये कैसी शिक्षा, ये  कैसा ज्ञान,
भाई  भाई के ले रहा है प्राण,
न धर्म,  आचरण, मर्यादाएं,
न रह गयी अब   भावनाएं,
जो देखा, हम केवल  मौन रहे,
ये पृष्ठभूमि हैं, इस रण की,

सोमवार, सितंबर 01, 2014

आम आदमी की आवाज...

कोई भी सरकार आये,
राजा चाहे कोई भी हो,
आम आदमी  की आवाज,
कोई  भी  नहीं सुनता...

आम आदमी भी,
जब पा जाता है कुर्सी,
आम आदमी की आवाज,
वो भी नहीं सुनता...

आते हैं जब राजा,
उमड़ आती है भीड़,
उनका कहा हर शब्द,
आम आदमी आनंद से है  सुनता...

आम आदमी की हर पीड़ा,
महसूस की कवियों  ने,
कवियों  की आवाज  तो,
आम आदमी भी नहीं सुनता...