धरा मानव से कह रही है,
मुझे तुमने बंजर
बनाया...
कर दिये जंगल बिलकुल खाली,
नदियों का भी जल सुखाया...
कहते हो तुम खुद को महान,
श्रेष्ठ है तुम्हारा ज्ञान, विज्ञान,
केवल चंद वर्षों के सुख के
लिये,
सदियों का सुख लुटाया...
मिटा दिये तुमने असंख्य
जीव,
टिकी हुई थी जिन पे मेरी
नीव,
तुम्हारे नित्य नये आविष्कारों ने,
मुझे केवल असहाय बनाया...
पीड़ा से जब मैं कराही,
हड़कंप मचा हुई
तबाही,
आंसू बहे तो बाड़ आयी,
हिली ही केवल, भूकंप आया...
कब होगी तबाही, जान लिया,
दोषी भी खुद को मान लिया,
संभल जाओ वक्त अभी भी है,
विनाश का निकट वक्त है आया...